श्रीमद् भगवद्-गीता » अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण » श्लोक 27 |
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| | श्लोक 14.27  | ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥ | | | अनुवाद | और मैं ही निराकार ब्रह्म का आधार हूँ, जो अमर, अविनाशी और शाश्वत है तथा परम सुख का स्वाभाविक पद है। | | And I am the abode of that formless Brahman, who is immortal, indestructible and eternal and is the natural position of ultimate bliss. | | इस प्रकार श्रीमद् भगवद्-गीता के अंतर्गत चौदहवाँ अध्याय समाप्त होता है । | |
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