श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 14: प्रकृति के तीन गुण  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  14.2 
 
 
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता: ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ २ ॥
 
अनुवाद
 
  इस ज्ञान में स्थिर होकर मनुष्य मेरे जैसा दिव्य स्वरूप प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार स्थित हो जाने पर वह सृष्टि के समय उत्पन्न नहीं होता और प्रलय के समय भी विचलित नहीं होता।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.