श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 11: विराट रूप  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  11.48 
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रै: ।
एवंरूप: शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ ४८ ॥
 
 
अनुवाद
हे कुरुश्रेष्ठ योद्धाओं, तुमसे पहले किसी ने भी मेरा यह विश्वरूप नहीं देखा है, क्योंकि न तो वेदों के अध्ययन से, न यज्ञों से, न दान से, न पुण्य कार्यों से, न ही कठिन तपस्या से मैं इस रूप में भौतिक जगत में देखा जा सकता हूँ।
 
O best of the Kurus! Before you, no one had seen my cosmic form because I cannot be seen in this form in this world either by studying the Vedas, or by performing sacrifices, charity, good deeds or by performing severe penance.
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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