श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 1: युद्धस्थल परीक्षण एवं अर्जुन विषाद योग  »  श्लोक 32-35
 
 
श्लोक  1.32-35 
 
 
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङ्‍‍क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२ ॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३3 ॥
मातुलाः श्वश‍ुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्न‍तोऽपि मधुसूदन ॥ ३४ ॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्ज‍नार्दन ॥ ३५ ॥
 
अनुवाद
 
  हे गोविंद! राज्य, सुख या फिर इस जीवन का हमें क्या लाभ! क्योंकि जिन सभी लोगों के लिए हम इन्हें चाहते हैं, वे ही तो इस युद्ध के मैदान में खड़े हैं। हे मधुसूदन! जब हमारे गुरुजन, पिताजी, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले और अन्य संबंधी अपना-अपना धन और प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे सामने खड़े हैं तो फिर मैं इन्हें क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे मार डालें? हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लड़ने के लिए तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक मिल जाएँ, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी खुशी मिलेगी?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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