श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 19: श्री चैतन्य महाप्रभु का अचिन्त्य व्यवहार  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  3.19.51 
সব ত্যজি’ ভজি যাঙ্রে, সেই আপন-হাতে মারে,
নারী-বধে কৃষ্ণের নাহি ভয
তাঙ্র লাগি’ আমি মরি, উলটি’ না চাহে হরি,
ক্ষণ-মাত্রে ভাঙ্গিল প্রণয
सब त्यजि’ भजि याँरे, सेइ आपन - हाते मारे
नारी - वधे कृष्णेर नाहि भय ।
ताँर ला गि’ आमि मरि, उलटि’ ना चाहे हरि
क्षण - मात्रे भाङ्गिल प्रणय ॥51॥
 
अनुवाद
"जिसके लिए मैंने अपना सब त्याग दिया, वही अपने हाथों से मुझे मार रहा है। कृष्ण को स्त्री के प्राण लेने का भय नहीं है। वैसे तो मैं उसके लिए मरने को तैयार हूँ पर उसने पीछे मुड़कर मुझे देखा तक नहीं। क्षण-भर में ही उन्होंने हमारे प्रेम-संबंध को समाप्त कर दिया है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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