श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 87
 
 
श्लोक  3.16.87 
ক্ব মে কান্তঃ কৃষ্ণস্ ত্বরিতম্ ইহ তṁ লোকয সখে
ত্বম্ এবেতি দ্বারাধিপম্ অভিবদন্ন্ উন্মদ ইব
দ্রুতṁ গচ্ছ দ্রষ্টুṁ প্রিযম্ ইতি তদ্-উক্তেন ধৃত-তদ্-
ভুজান্তর্ গৌরাঙ্গো হৃদয উদযন্ মাṁ মদযতি
 
 
क्व मे कान्तः कृष्णस्त्वरितमिह तं लोकय सखे त्वमेवे ति द्वाराधिपमभिवदन्नुन्मद इव ।
द्रुतं गच्छ द्रष्टुं प्रियमिति तदुक्तेन धृत - तद् भुजान्तर्गौराङ्गो हृदय उदयन्मां मदयति ॥87॥
 
अनुवाद
 
  "हे द्वारपाल, हे मेरे मित्र, मेरे हृदय के स्वामी कृष्ण कहाँ हैं? मुझे शीघ्र ही उनके दर्शन करा दो।" श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्मत्त की तरह इन शब्दों से उस द्वारपाल को संबोधित किया।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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