श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 53
 
 
श्लोक  3.16.53 
ইতো নৃসিṁহঃ পরতো নৃসিṁহো
যতো যতো যামি ততো নৃসিṁহঃ
বহির্ নৃসিṁহো হৃদযে নৃসিṁহো
নৃসিṁহম্ আদিṁ শরণṁ প্রপদ্যে
 
 
इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो यतो यतो यामि ततो नृसिंहः ।
बहिनृसिंहो हृदये नृसिंहो नृसिंहमादिं शरणं प्रपद्ये ॥53॥
 
अनुवाद
 
  "इधर भी भगवान नृसिंह हैं और उधर भी भगवान नृसिंह हैं। जहाँ भी मैं जाता हूँ, मैं भगवान नृसिंहदेव को वहाँ देखता हूँ। वे मेरे हृदय के बाहर और अंदर दोनों जगह हैं। इसलिए मैं आदि भगवान नृसिंहदेव की शरण लेता हूँ, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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