श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.16.26 
বিপ্রাদ্ দ্বি-ষড্-গুণ-যুতাদ্ অরবিন্দ-নাভ-
পাদারবিন্দ-বিমুখাত্ শ্ব-পচṁ বরিষ্ঠম্
মন্যে তদ্-অর্পিত-মনো-বচনেহিতার্থ-
প্রাণṁ পুনাতি স কুলṁ ন তু ভূরি-মানঃ
 
 
विप्राद् द्वि - षडू - गुण - युतादरविन्द - नाभ - पादारविन्द - विमुखात्श्व - पचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तद र्पित - मनो - वचनेहितार्थ - प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरि - मानः ॥26॥
 
अनुवाद
 
  "जन्म से ब्राह्मण होने या ब्राह्मण गुणों से सम्पन्न होने पर भी यदि कोई व्यक्ति कमलनाभ भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति नहीं रखता, तो वह उस चाण्डाल के समान भी नहीं होता जो अपना मन, वचन, कर्म, धन और जीवन भगवान की सेवा में समर्पित कर देता है। मात्र ब्राह्मण कुल में जन्म लेना या ब्राह्मण गुणों से संपन्न होना ही काफी नहीं है। व्यक्ति को भगवान का शुद्ध भक्त बनना चाहिए। यदि कोई श्वपच या चाण्डाल भी भक्त होता है, तो वह न केवल अपना, बल्कि पूरे परिवार का उद्धार कर लेता है, जबकि अभक्त ब्राह्मण, ब्राह्मण गुणों से युक्त होते हुए भी अपने आपको भी पवित्र नहीं कर सकता, अपने परिवार की बात तो दूर रही।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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