श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 3: अन्त्य लीला » अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान » श्लोक 148 |
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| | श्लोक 3.16.148  | নিজাঙ্কুরে পুলকিত, পুষ্পে হাস্য বিকসিত,
মধু-মিষে বহে অশ্রু-ধার
বেণুরে মানি’ নিজ-জাতি, আর্যের যেন পুত্র-নাতি,
‘বৈষ্ণব’ হৈলে আনন্দ-বিকার | निजाङ्करे पुलकित, पुष्पे हास्य विकसित
मधु - मिषे वहे अश्रु - धार ।
वेणुरे मानि’ निज - जाति, आर्येर येन पुत्र - नाति
‘वैष्णव’ हैले आनन्द - विकार ॥148॥ | | अनुवाद | यमुना और गंगा के तट के वृक्ष हमेशा खुशमिजाज रहते हैं। ये अपने फूलों के साथ मुस्कुराते हैं और बहते हुए मधु के रूप में आँसू बहाते हुए दिखाई देते हैं। जिस तरह वैष्णव पुत्र या पोते के पूर्वज परम आनंद का अनुभव करते हैं, वैसे ही ये वृक्ष आनंदित होते हैं क्योंकि बाँसुरी उनके परिवार की सदस्य है। | | |
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