श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 147
 
 
श्लोक  3.16.147 
এ-ত নারী রহু দূরে, বৃক্ষ সব তার তীরে,
তপ করে পর-উপকারী
নদীর শেষ-রস পাঞা, মূল-দ্বারে আকর্ষিযা,
কেনে পিযে, বুঝিতে না পারি
 
 
ए - त नारी रहु दूरे, वृक्ष सब तार तीरे,
तप करे पर - उपकारी ।
नदीर शेष - रस पाञा, मूल - द्वारे आकर्षिया ,
केने पिये, बुझिते ना पारि ॥147॥
 
अनुवाद
 
  "नदियों के इलावा, महामुनियों की तरह तट पर खड़े और सभी जीवों के कल्याण में लगे ये पेड़ अपनी जड़ों से नदी के पानी को खींचकर कृष्ण के होठों के अमृत का पान करते रहते हैं। हम समझ नहीं पाते कि वे ऐसा क्यों करते हैं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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