श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 144
 
 
श्लोक  3.16.144 
হেন কৃষ্ণাধর-সুধা, যে কৈল অমৃত মুধা,
যার আশায গোপী ধরে প্রাণ
এই বেণু অযোগ্য অতি, স্থাবর ‘পুরুষ-জাতি’,
সেই সুধা সদা করে পান
 
 
हेन कृष्णाधर - सुधा, ये कैल अमृत मुधा
यार आशाय गोपी धरे प्राण ।
एइ वेणु अयोग्य अति, स्थावर ‘पुरुष - जाति’
सेइ सुधा सदा करे पान ॥144॥
 
अनुवाद
 
  "यह बाँसुरी पूरी तरह से अयोग्य है, क्योंकि यह तो एक बेजान बाँस का डंडा है। इतना ही नहीं, यह नर-जाति की भी है। फिर भी यह बाँसुरी कृष्ण के होठों के उस अमृत का पान कर रही है, जो कि सभी प्रकार के वर्णित अमृतों के स्वाद को भी पार कर जाता है। गोपियाँ उसी अमृत की आशा में जीवित हैं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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