श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 142
 
 
श्लोक  3.16.142 
এহো ব্রজেন্দ্র-নন্দন, ব্রজের কোন কন্যা-গণ,
অবশ্য করিব পরিণয
সে-সম্বন্ধে গোপী-গণ, যারে মানে নিজ-ধন,
সে সুধা অন্যের লভ্য নয
 
 
एहो व्रजेन्द्र - नन्दन, व्रजेर कोन कन्या - गण
अवश्य करिब परिणय ।
से - सम्बन्धे गोपी - गण, यारे माने निज - धन
से सुधा अन्येर लभ्य नय ॥142॥
 
अनुवाद
 
  कुछ गोपियों ने अन्य गोपियों से कहा, “जरा व्रजेन्द्र नंदन कृष्ण की अद्भुत लीलाओं को देखो। वे निश्चित ही वृंदावन की सारी गोपियों के साथ विवाह करेंगे। इसलिए गोपियों को पूरा भरोसा है कि कृष्ण के होठों का अमृत सिर्फ उनकी निजी संपत्ति है और इसे कोई दूसरा नहीं भोग सकता।”
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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