श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 140
 
 
श्लोक  3.16.140 
গোপ্যঃ কিম্ আচরদ্ অযṁ কুশলṁ স্ম বেণুর্
দামোদরাধর-সুধাম্ অপি গোপিকানাম্
ভুঙ্ক্তে স্বযṁ যদ্ অবশিষ্ট-রসṁ হ্রদিন্যো
হৃষ্যত্-ত্বচো ’শ্রু মুমুচুস্ তরবো যথার্যাঃ
 
 
गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुर् दामोदराधर - सुधामपि गोपिकानाम् ।
भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्ट - रसं ह्रदिन्यो हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथार्याः ॥140॥
 
अनुवाद
 
  “अरे गोपियो, स्वामी श्रीकृष्ण के अधरों का अमृत स्वतंत्र रूप से पीकर और हमें गोपियों को, जिनके लिए दरअसल ये अमृत है, केवल थोड़ा-बहुत अवशिष्ट स्वाद छोड़कर, इस बांसुरी ने कौन से पुण्य कर्म किये होंगे? बांस के पेड़, वंशी के पूर्वज, खुशी के आंसू बहा रहे हैं। उसकी माँ, नदी जिसके तट पर बाँस उत्पन्न हुए हैं, हर्ष महसूस कर रही है, इसलिए उसके खिलते हुए कमल-पुष्प उसके शरीर पर रोमांच की तरह दिखाई दे रहे हैं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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