नीवि खसाय गुरु - आगे, लज्जा - धर्म कराय त्यागे
केशे ध रि’ येन लञा याय ।
आनि’ कराय तोमार दासी, शुनि’ लोक करे हा सि’
एइ - मत नारीरे नाचाय ॥128॥
अनुवाद
हमारे ऊपर आपके होठों के अमृत और आपकी बाँसुरी के बजने का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम अपने कमरबंद को खोल देते हैं और अपने गुरुजनों के सामने भी अपने सम्मान और धर्म को छोड़ देते हैं। मानो आपने हमारे बाल पकड़ लिए हों और हमें खींचकर अपनी दासी बनाने के लिए ले जा रहे हों। ये बातें सुनकर लोग हम पर हँसते हैं। अब हम बाँसुरी के पूरी तरह अधीन हो गई हैं।