श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 128
 
 
श्लोक  3.16.128 
নীবি খসায গুরু-আগে, লজ্জা-ধর্ম করায ত্যাগে,
কেশে ধরি’ যেন লঞা যায
আনি’ করায তোমার দাসী, শুনি’ লোক করে হাসি’,
এই-মত নারীরে নাচায
 
 
नीवि खसाय गुरु - आगे, लज्जा - धर्म कराय त्यागे
केशे ध रि’ येन लञा याय ।
आनि’ कराय तोमार दासी, शुनि’ लोक करे हा सि’
एइ - मत नारीरे नाचाय ॥128॥
 
अनुवाद
 
  हमारे ऊपर आपके होठों के अमृत और आपकी बाँसुरी के बजने का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम अपने कमरबंद को खोल देते हैं और अपने गुरुजनों के सामने भी अपने सम्मान और धर्म को छोड़ देते हैं। मानो आपने हमारे बाल पकड़ लिए हों और हमें खींचकर अपनी दासी बनाने के लिए ले जा रहे हों। ये बातें सुनकर लोग हम पर हँसते हैं। अब हम बाँसुरी के पूरी तरह अधीन हो गई हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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