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अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान
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श्लोक 127
श्लोक
3.16.127
অধরামৃত নিজ-স্বরে, সঞ্চারিযা সেই বলে,
আকর্ষয ত্রিজগত্-জন
আমরা ধর্ম-ভয করি’, রহি’ যদি ধৈর্য ধরি’,
তবে আমায করে বিডম্বন
अधरामृत निज - स्वरे, सञ्चारिया सेइ बले
आकर्षय त्रिजगत्जन ।
आमरा धर्म - भय क रि’, रहि’ यदि धैर्य ध रि’
तबे आमाय करे विड़म्बन ॥127॥
अनुवाद
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कृष्ण के होठों का अमृत और उनकी वंशी की ध्वनि तीनों लोकों के सभी लोगों को आकर्षित करती है। लेकिन अगर हम गोपियाँ धर्म का आदर करते हुए धैर्य रखती हैं, तो वंशी हमारी आलोचना करती हैं।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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