श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 126
 
 
श्लोक  3.16.126 
তবে মোরে ক্রোধ করি’, লজ্জা ভয, ধর্ম, ছাডি’,
ছাডি’ দিমু, কর আসি’ পান
নহে পিমু নিরন্তর, তোমায মোর নাহিক ডর,
অন্যে দেখোঙ্ তৃণের সমান
 
 
तबे मोरे क्रोध क रि’, लज्जा भय, धर्म, छाड़ि’,
छाड़ि’ दिमु, कर आ सि’ पान ।
नहे पिमु निरन्तर, तोमाय मोर नाहिक डर ,
अन्ये देखों तृणेर समान ॥126॥
 
अनुवाद
 
  “इस पर बाँसुरी ने मुझ पर क्रोध करते हुए कहा, ‘तुम अपनी लाज, डर और धर्म को त्यागकर कृष्ण के होठों का पान करो। बस इसी शर्त पर मैं उनसे अपना लगाव छोड़ दूँगी। मगर यदि तुम अपनी लाज और डर को नहीं छोड़ पाती हो तो मैं हमेशा कृष्ण के होठों का अमृत पीती रहूँगी। मैं थोड़ा डरती हूँ क्योंकि तुम्हें भी उस अमृत को पीने का अधिकार है, पर बाकी लोग मेरे लिए तिनके के समान हैं।’
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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