श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 125
 
 
श्लोक  3.16.125 
বেণু ধৃষ্ট-পুরুষ হঞা, পুরুষাধর পিযা পিযা,
গোপী-গণে জানায নিজ-পান
অহো শুন, গোপী-গণ, বলে পিঙো তোমার ধন,
তোমার যদি থাকে অভিমান
 
 
वेणु धृष्ट - पुरुष हञा, पुरुषाधर पिया पिया,
गोपी - गणे जानाय निज - पान ।
अहो शुन, गोपी - गण, बले पिडो तोमार धन ,
तोमार यदि थाके अभिमान ॥125॥
 
अनुवाद
 
  “वह वंशी (वेणु) बड़ा चतुर पुरुष है, जो दूसरे पुरुष के होठों के स्वाद का बार-बार पान करता है। यह वंशी रूपी पुरुष अपने गुणों का विज्ञापन करते हुए गोपियों से कहता है, ‘अरे गोपियों, अगर तुम्हें स्त्री होने पर इतना गर्व है, तो आगे आओ और अपनी संपत्ति - भगवान के होठों के अमृत का - भोग करो।’”
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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