श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 16: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा कृष्ण के अधरों का अमृतपान  »  श्लोक 121-122
 
 
श्लोक  3.16.121-122 
তনু-মন করায ক্ষোভ, বাডায সুরত-লোভ,
 হর্ষ-শোকাদি-ভার বিনাশয
পাসরায অন্য রস, জগত্ করে আত্ম-বশ,
 লজ্জা, ধর্ম, ধৈর্য করে ক্ষয
নাগর, শুন তোমার অধর-চরিত
মাতায নারীর মন, জিহ্বা করে আকর্ষণ,
বিচারিতে সব বিপরীত
 
 
तनु - मन कराय क्षोभ, बाड़ाय सुरत - लोभ,
हर्ष - शोकादि - भार विनाशय
पासराय अन्य रस, जगत्करे आत्म - वश,
लज्जा, धर्म, धैर्य करे क्षय ॥121॥
नागर, शुन तोमार अधर - चरित
माताय नारीर मन, जिह्वा करे आकर्षण ,
विचारिते सब विपरीत ॥122॥
 
अनुवाद
 
  भगवान चैतन्य ने श्रीमती राधारानी के भाव में कहा, "हे प्रिय, आपके दिव्य होठों के कुछ गुणों का मुझे वर्णन करने दो। वे सबके मन-मस्तिष्क को अशांत कर देते हैं, भोग के लिए कामना को बढ़ा देते हैं, सांसारिक सुख-दुख को नष्ट कर देते हैं और सभी भौतिक स्वादों को भुला देते हैं। पूरा संसार उनके वश में है। वे विशेष रूप से महिलाओं की शर्म, धर्म और धैर्य को खत्म कर देते हैं। निस्संदेह, वे सभी महिलाओं के मन में पागलपन भर देते हैं। आपके होठ जीभ की लालच को बढ़ाकर उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इन सब बातों पर विचार करने से हम पाते हैं कि आपके दिव्य होठ हमें हमेशा विचलित करते रहते हैं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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