श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 15: श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य उन्माद  »  श्लोक 97
 
 
श्लोक  3.15.97 
পযো-রাশেস্ তীরে স্ফুরদ্-উপবনালী-কলনযা
মুহুর্ বৃন্দারণ্য-স্মরণ-জনিত-প্রেম-বিবশঃ
ক্বচিত্ কৃষ্ণাবৃত্তি-প্রচল-রসনো ভক্তি-রসিকঃ
স চৈতন্যঃ কিṁ মে পুনর্ অপি দৃশোর্ যাস্যতি পদম্
 
 
पयो - राशेस्तीरे स्फुरदुपवनाली - कलनया मुहुर्वृन्दारण्य - स्मरण - जनित - प्रेम - विवशः ।
क्वचित्कृष्णावृत्ति - प्रचल - रसनो भक्ति - रसिकः स चैतन्यः किं मे पुनरपि दृशोर्यास्यति पदम् ॥97॥
 
अनुवाद
 
  श्री चैतन्य महाप्रभु सभी भक्तों में सर्वोच्च हैं। कभी-कभी, समुद्र तट पर टहलते हुए, वे पास में ही एक सुंदर उद्यान देखते और उसे वृंदावन का जंगल समझ बैठते। इस प्रकार वे कृष्ण-प्रेम से पूर्ण रूप से अभिभूत हो जाते और पवित्र नाम का कीर्तन और नृत्य करने लगते। जब वे कृष्ण-कृष्ण का उच्चारण करते, तो उनकी जीभ लगातार चलती रहती। क्या वे फिर से मेरी आँखों के सामने प्रकट होंगे?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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