श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 15: श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य उन्माद  »  श्लोक 71
 
 
श्लोक  3.15.71 
কৃষ্ণ জিনি’ পদ্ম-চান্দ, পাতিযাছে মুখ ফান্দ,
তাতে অধর-মধু-স্মিত চার
ব্রজ-নারী আসি’ আসি’, ফান্দে পডি’ হয দাসী,
ছাডি’ লাজ-পতি-ঘর-দ্বার
 
 
कृष्ण जिनि’ पद्म - चान्द, पातियाछे मुख फान्द
ताते अधर - मधु - स्मित चार ।
व्रज - नारी आ सि’ आसि’, फान्दे पड़ि’ हय दासी
छाड़ि’ लाज - पति - घर - द्वार ॥71॥
 
अनुवाद
 
  श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "चन्द्रमा और कमल पर विजय पाने के बाद, कृष्ण ने मृग जैसी गोपियों को पकड़ना चाहा। इसलिए उन्होंने अपने सुंदर चेहरे को जाल की तरह फैला दिया और गोपियों को फंसाने के लिए उसमें अपनी मधुर मुस्कान का चारा रख दिया। गोपियाँ उस जाल की शिकार बन गईं और अपने घर, परिवार, पति और प्रतिष्ठा का त्याग करके कृष्ण की सेविकाएँ बन गईं।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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