मुरलीर कल - ध्वनि, मधुर गर्जन शुनि’
वृन्दावने नाचे मयूर - चय ।
अकलङ्क पूर्ण - कल, लावण्य - ज्योत्स्ना झलमल
चित्र - चन्द्रेर ताहाते उदय ॥67॥
अनुवाद
"श्रीकृष्ण के तन की चमक बिना दाग़ वाले पूर्णिमा के चाँद सी सुंदर है और उनकी बांसुरी की धुन नई-नई घिरती हुई काली घटा के गरजने जैसी मिठास घोले है। जब वृंदावन के मोर उस खनक को सुनते हैं, तो उनका डांस शुरू हो जाता है।"