श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 15: श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य उन्माद  »  श्लोक 61
 
 
श्लोक  3.15.61 
পুনঃ কেনে না দেখিযে মুরলী-বদন!
তাঙ্হার দর্শন-লোভে ভ্রময নযন”
 
 
पुनः केने ना देखिये मुरली - वदन! ।
ताँहार दर्शन - लोभे भ्रमय नयन” ॥61॥
 
अनुवाद
 
  मैं पुनः क्यों नहीं देख सकता कृष्ण को अपने होठों पर मुरली रखे हुए? मेरी आँखें उन्हें एक बार फिर से देखने की आशा से इधर-उधर भटक रही हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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