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श्लोक 3.15.61  |
পুনঃ কেনে না দেখিযে মুরলী-বদন!
তাঙ্হার দর্শন-লোভে ভ্রময নযন” |
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पुनः केने ना देखिये मुरली - वदन! ।
ताँहार दर्शन - लोभे भ्रमय नयन” ॥61॥ |
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अनुवाद |
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मैं पुनः क्यों नहीं देख सकता कृष्ण को अपने होठों पर मुरली रखे हुए? मेरी आँखें उन्हें एक बार फिर से देखने की आशा से इधर-उधर भटक रही हैं। |
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