श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 15: श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य उन्माद  »  श्लोक 58
 
 
श्लोक  3.15.58 
পূর্ববত্ সর্বাঙ্গে সাত্ত্বিক-ভাব-সকল
অন্তরে আনন্দ-আস্বাদ, বাহিরে বিহ্বল
 
 
पूर्ववत्सर्वाङ्गे सात्त्विक - भाव - सकल ।
अन्तरे आनन्द - आस्वाद, बाहिरे विह्वल ॥58॥
 
अनुवाद
 
  ठीक वैसे ही, जैसे कि पहले भी देखा गया था, उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के शरीर में दिव्य प्रेमावेश के लक्षणों को प्रकट देखा। यद्यपि वे बाहर से अस्थिर व अशांत दिख रहे थे, परन्तु भीतर से वे दिव्य आनंद का अनुभव कर रहे थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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