श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 15: श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य उन्माद  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  3.15.44 
অপ্য্ এণ-পত্ন্য্ উপগতঃ প্রিযযেহ গাত্রৈস্
তন্বন্ দৃশাṁ সখি সু-নির্বৃতিম্ অচ্যুতো বঃ
কান্তাঙ্গ-সঙ্গ-কুচ-কুঙ্কুম-রঞ্জিতাযাঃ
কুন্দ-স্রজঃ কুল-পতের্ ইহ বাতি গন্ধঃ
 
 
अप्येण - पत्न्युपगतः प्रिययेह गात्रैस् तन्वन्दृशां सखि सु - निवृतिमच्युतो वः ।
कान्ताङ्ग - सङ्ग - कुच - कुङ्कम - रञ्जितायाः कुन्द - स्रजः कुल - पतेरिह वाति गन्धः ॥44॥
 
अनुवाद
 
  श्री चैतन्य महाप्रभु ने बोला, "हे मृगी, भगवान श्री कृष्ण अपनी प्रेमिका के साथ प्रेमलीला कर रहे थे, जिससे उसके उभरे हुए सीने पर लगा कुंकुम श्री कृष्ण की कुंद फूलों की माला पर चिपक गया है। उस माला की सुगंध यहाँ बह रही है। हे प्रिय सखी, क्या तूने कृष्ण को अपनी सबसे प्यारी संगिनी के साथ इस तरफ़ से जाते और तुम सबों की आँखों के आनंद को बढ़ाते देखा है?"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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