श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 14: श्री चैतन्य महाप्रभु का कृष्ण-विरह भाव  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.14.5 
প্রভুর বিরহোন্মাদ-ভাব গম্ভীর
বুঝিতে না পারে কেহ, যদ্যপি হয ‘ধীর’
प्रभुर विरहोन्माद - भाव गम्भीर ।
बुझिते ना पारे केह, यद्यपि ह य’ धीर’ ॥5॥
 
अनुवाद
श्री चैतन्य महाप्रभु का कृष्ण विरह में डूबकर दिव्य उन्माद में चले जाना बहुत गहरी और रहस्यमयी भावना है। कोई कितना भी प्रबुद्ध और विद्वान क्यों न हो, वह इसे समझ नहीं सकता।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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