श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 14: श्री चैतन्य महाप्रभु का कृष्ण-विरह भाव  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  3.14.15 
দিব্যোন্মাদে ঐছে হয, কি ইহা বিস্ময?
অধিরূঢ-ভাবে দিব্যোন্মাদ-প্রলাপ হয
दिव्योन्मादे ऐछे हय, कि इहा विस्मय ? ।
अधिरूढ़ - भावे दिव्योन्माद - प्रलाप हय ॥15॥
 
अनुवाद
दिव्य उन्माद की स्थिति ऐसी होती है। इसे समझ पाना कठिन क्यों होता है? जब कोई कृष्ण-प्रेम में बहुत अधिक ऊँचा उठ जाता है, तो वह दिव्य रूप से उन्मत्त होकर किसी उन्मत्त की तरह बातें करता है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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