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श्लोक 3.14.120  |
সমীপে নীলাদ্রেশ্ চটক-গিরি-রাজস্য কলনাদ্
অযে গোষ্ঠে গোবর্ধন-গিরি-পতিṁ লোকিতুম্ ইতঃ
ব্রজন্ন্ অস্মীত্য্ উক্ত্বা প্রমদ ইব ধাবন্ন্ অবধৃতো
গণৈঃ স্বৈর্ গৌরাঙ্গো হৃদয উদযন্ মাṁ মদযতি |
समीपे नीलाद्रेश्चटक - गिरि - राजस्य कलनाद् अये गोष्ठे गोवर्धन - गिरि - पतिं लोकितुमितः ।
व्रजन्नस्मीत्युक्त्वा प्रमद इव धावन्नवधृतो गणैः स्वै र्गौराङ्गड़ो हृदय उदयन्मां मदयति ॥120॥ |
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अनुवाद |
“जगन्नाथ पुरी के समीप चटक पर्वत नाम का एक बड़ा रेतीला टिला है। उस पहाड़ को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “अरे! मैं गोवर्धन पर्वत देखने के लिए व्रज भूमि जाऊँगा!” फिर वे उसकी ओर पागलों की तरह दौड़ने लगे और सारे वैष्णव उनके पीछे दौड़े। यह दृश्य मेरे हृदय में उमड़ता है और मुझे पागल बना देता है।” |
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