श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 3: अन्त्य लीला  »  अध्याय 13: जगदानन्द पण्डित तथा रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के साथ लीलाएँ  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  3.13.1 
কৃষ্ণ-বিচ্ছেদ-জাতার্ত্যা
ক্ষীণে চাপি মনস্-তনূ
দধাতে ফুল্লতাṁ ভাবৈর্
যস্য তṁ গৌরম্ আশ্রযে
कृष्ण - विच्छेद - जाता र्त्या क्षीणे चापि मनस्तनू ।
दधाते फुल्लतां भावैर्यस्य तं गौरमाश्रये ॥1॥
 
अनुवाद
मैं गौरचंद्र महाप्रभु के चरणकमलों की शरण लेता हूँ। कृष्ण से बिछोह की पीड़ा के कारण उनका मन क्षीण हो गया और शरीर बहुत पतला हो गया। लेकिन जब उन्हें भगवान के लिए प्रेम की भावना होती, तो वे फिर से पूरी तरह से खिल उठते।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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