श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 3: अन्त्य लीला » अध्याय 11: हरिदास ठाकुर का महाप्रयाण » श्लोक 28 |
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| | श्लोक 3.11.28  | অদৃশ্য, অস্পৃশ্য মোরে অঙ্গীকার কৈলা
রৌরব হ-ইতে কাডি’ মোরে বৈকুণ্ঠে চডাইলা | |  | | अदृश्य, अस्पृश्य मोरे अङ्गीकार कैला ।
रौरव ह - इते का ड़ि’ मोरे वैकुण्ठे चड़ाइला ॥28॥ | | अनुवाद | | मैं अदृश्य और अस्पृश्य हूँ, किन्तु आपने मुझे अपना दास बना लिया है। इसका मतलब है कि आपने मुझे नरक की स्थिति से छुड़ाया है और वैकुण्ठ पद पर बैठाया है। | |
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