श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 8: श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्री रामानन्द राय के बीच वार्तालाप  »  श्लोक 67
 
 
श्लोक  2.8.67 
জ্ঞানে প্রযাসম্ উদপাস্য নমন্ত এব
জীবন্তি সন্-মুখরিতাṁ ভবদীয-বার্তাম্
স্থানে স্থিতাঃ শ্রুতি-গতাṁ তনু-বাঙ্-মনোভির্
যে প্রাযশো ’জিত জিতো ’প্য্ অসি তৈস্ ত্রি-লোক্যাম্
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीय - वार्ताम् ।
स्थाने स्थिताः श्रुति - गतां तनु - वाङ्मनोभिर् ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैस्त्री - लोक्याम् ॥67॥
 
अनुवाद
रामानन्द ने आगे कहा, “[ब्रह्माजी ने कहा:] ‘हे प्रभु, जिन भक्तों ने परम सत्य के बारे में निर्विशेष खयाल को त्याग दिया है और जिन्होंने चिन्तन के दार्शनिक सत्यों के बारे में विचार - विमर्श करना त्याग दिया है, उन्हें स्वरूपसिद्ध भक्तों से आपके नाम, रूप, लीलाओं तथा गुणों के बारे में श्रवण करना चाहिए। उन्हें भक्ति के नियमों का पूर्णतया पालन करना चाहिए और अवैध सम्बन्ध, जुआ, नशा तथा पशु - हत्या से दूर रहना चाहिए। मन, कर्म तथा वचन से शरणागत होकर वे किसी भी वर्ण या आश्रम में रह सकते हैं। निस्सन्देह, आप सदैव अजेय होते हुए भी ऐसे व्यक्तियों द्वारा जीते जाते हैं।”
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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