श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 24: आत्माराम श्लोक की 61 व्याख्याएँ  »  श्लोक 213
 
 
श्लोक  2.24.213 
উদরম্ উপাসতে য ঋষি-বর্ত্মসু কূর্প-দৃশঃ
পরিসর-পদ্ধতিṁ হৃদযম্ আরুণযো দহরম্
তত উদগাদ্ অনন্ত তব ধাম শিরঃ পরমṁ
পুনর্ ইহ যত্ সমেত্য ন পতন্তি কৃতান্ত-মুখে
उदरमुपासते य ऋषि - वर्मसु कूर्प - दृशः परिसर - पद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम् ।
तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमं पुनरिह यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्त - मुखे ॥213॥
 
अनुवाद
"जो लोग बड़े महान संत-महात्मा योगियों के बताए हुए मार्ग को अपनाते हैं वे योग के अभ्यासों का सहारा लेते हैं और अपने पेट से पूजा करना शुरू करते हैं, ऐसा कहा जाता है कि पेट में ही ब्रह्म निवास करते हैं। ऐसे लोगों को शाकराक्ष कहा जाता है जिसका यही मतलब है कि वो स्थूल देह में ही कैद रहते हैं। कुछ लोग आरुण ऋषि के अनुयायी भी होते हैं। वे उनके मार्ग का अनुसरण करते हुए नसों के कार्यों का अध्ययन करते हैं। इस प्रकार वो धीरे-धीरे हृदय तक पहुँचते हैं जहाँ पर सूक्ष्म ब्रह्म यानी कि परमात्मा स्थित हैं। फिर वे वहीँ परमात्मा की उपासना करते हैं। हे अनंत! इन सब से भी अच्छे योगी वो होते हैं जो आपके चरणों की पूजा अपने सिर के ऊपर से करते हैं। वे पेट से शुरू करके हृदय तक पहुँचते हैं और वहाँ से सिर के ऊपर तक चले जाते हैं, फिर ब्रह्मरंध तक पहुँचते हैं, जो खोपड़ी की चोटी पर स्थित छिद्र होता है। इस तरह ये योगी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं और फिर जन्म-मृत्यु के चक्र में दोबारा नहीं पड़ते।"
 
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