श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 2: मध्य लीला » अध्याय 23: जीवन का चरम लक्ष्य -भगवत्प्रेम » श्लोक 57 |
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| | श्लोक 2.23.57  | ‘রূঢ’, ‘অধিরূঢ’ ভাব — কেবল ‘মধুরে’
মহিষী-গণের ‘রূঢ’, ‘অধিরূঢ’ গোপিকা-নিকরে | ‘रूढ़’, ‘अधिरूढ़’ भाव - केवल ‘मधुरे’ ।
महिषी - गणेर ‘रूढ़’, ‘अधिरूढ़’ गोपिका - निकरे ॥57॥ | | अनुवाद | “केवल श्रृंगार रस में ही दो भाव लक्षण मिलते हैं, जिन्हें रूढ़ और अधिरूढ़ कहा जाता है। रूढ़ भाव द्वारका की पटरानियों में पाया जाता है और अधिरूढ़ भाव गोपियों में पाया जाता है।” | | |
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