श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 23: जीवन का चरम लक्ष्य -भगवत्प्रेम  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  2.23.48 
বিভাব, অনুভাব, সাত্ত্বিক, ব্যভিচারী
স্থাযি-ভাব ‘রস’ হয এই চারি মিলি’
विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, व्यभिचारी ।
स्थायि - भाव ‘रस’ हय एइ चारि मि लि’ ॥48॥
 
अनुवाद
"विभाव (विशेष भाव) , अनुभाव (अधीनस्थ भाव), सात्त्विक (स्वाभाविक भाव) तथा व्यभिचारी भाव का मिश्रण स्थायी भाव को अधिक-से-अधिक आनंददायक दिव्य आनंद अनुभव में बदल देता है।"
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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