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श्लोक 2.22.91  |
বরṁ হুত-বহ-জ্বালা-
পঞ্জরান্তর্-ব্যবস্থিতিঃ
ন শৌরি-চিন্তা-বিমুখ-
জন-সṁবাস-বৈশসম্ |
वरं हुत - वह - ज्वाला - पञ्जरान्तर्व्यवस्थितिः ।
न शौरि - चिन्ता - विमुख - जन - संवास - वैशसम् ॥91॥ |
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अनुवाद |
“पिंजरे में बंद हो जाना और जलती हुई आग से घिरे रहना, कृष्णभावना से रहित लोगों की संगति करने से कहीं अच्छा है। ऐसी संगति एक बहुत बड़ी विपत्ति है।” |
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