श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 2: मध्य लीला » अध्याय 22: भक्ति की विधि » श्लोक 78-80 |
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| | श्लोक 2.22.78-80  | কৃপালু, অকৃত-দ্রোহ, সত্য-সার সম
নিদোষ, বদান্য, মৃদু, শুচি, অকিঞ্চন
সর্বোপকারক, শান্ত, কৃষ্ণৈক-শরণ
অকাম, অনীহ, স্থির, বিজিত-ষড্-গুণ
মিত-ভুক্, অপ্রমত্ত, মানদ, অমানী
গম্ভীর, করুণ, মৈত্র, কবি, দক্ষ, মৌনী | कृपालु, अकृत - द्रोह, सत्य - सार सम ।
निदोष, वदान्य, मृदु, शुचि, अकिञ्चन ॥78॥
सर्वोपकारक, शान्त, कृष्णैक - शरण ।
अकाम, अनीह, स्थिर, विजित - षड् - गुण ॥79॥
मित - भुक्, अप्रमत्त, मानद, अमानी ।
गम्भीर, करुण, मैत्र, कवि, दक्ष, मौनी ॥80॥ | | अनुवाद | “भक्तगण सदैव कृपालु, विनीत, सत्यवादी, सर्वजन समभावी, निर्दोष, उदार, सौम्य और स्वच्छ होते हैं। उनके पास भौतिक संपत्ति नहीं होती और वे सबके लिए परोपकार करते हैं। वे शांत, कृष्ण के शरणागत और इच्छा रहित होते हैं। वे भौतिक उपलब्धियों की ओर आकृष्ट नहीं होते और भक्ति मार्ग में स्थिर रहते हैं। वे काम, क्रोध, लोभ आदि छह दुर्गुणों पर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं। वे आवश्यकतानुसार ही भोजन करते हैं और नशे से दूर रहते हैं। वे दूसरों का सम्मान करने वाले, गंभीर, दयालु और झूठी प्रतिष्ठा से रहित होते हैं। वे मित्रवत, कवि, निपुण और मौन रहने वाले होते हैं।” | | |
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