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श्लोक 2.22.45  |
কোন ভাগ্যে কারো সṁসার ক্ষযোন্মুখ হয
সাধু-সঙ্গে তবে কৃষ্ণে রতি উপজয |
कोन भाग्ये कारो संसार क्षयोन्मुख हय ।
साधु - सङ्गे तबे कृष्णे रति उपजय ॥45॥ |
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अनुवाद |
"भाग्य की कृपा से ही कोई अज्ञानता के सागर को पार करने के योग्य हो पाता है। जब किसी की भौतिक अस्तित्व की अवधि घटने लगती है, तो उसे शुद्ध भक्तों की संगति करने का अवसर मिल सकता है। ऐसी संगति से कृष्ण के प्रति उसका आकर्षण जाग जाता है।" |
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