श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 22: भक्ति की विधि  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  2.22.44 
মৈবṁ মমাধমস্যাপি
স্যাদ্ এবাচ্যুত-দর্শনম্
হ্রিযমাণঃ কাল-নদ্যা
ক্বচিত্ তরতি কশ্চন
मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युत - दर्शनम् ।
ह्रियमाणः काल - नद्या क्वचित्तरति कश्चन ॥44॥
 
अनुवाद
“मैंने भ्रमवश ये सोचा था कि ‘मैं इतना पतित हूँ इसलिए मुझे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के दर्शन कभी नहीं हो पाएँगे।’ वस्तुतः मेरे जैसा पतित व्यक्ति भी संयोगवश पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के दर्शन कर सकता है। भले ही मनुष्य समय रूपी नदी की तरंगों में बह रहा हो फिर भी अंततः वह किनारे तक पहुँच सकता है।”
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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