श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 22: भक्ति की विधि  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  2.22.42 
স্থানাভিলাষী তপসি স্থিতো ’হṁ
ত্বাṁ প্রাপ্তবান্ দেব-মুনীন্দ্র-গুহ্যম্
কাচṁ বিচিন্বন্ন্ অপি দিব্য-রত্নṁ
স্বামিন্ কৃতার্থো ’স্মি বরṁ ন যাচে
स्थानाभिलाषी तपसि स्थितोऽहं त्वां प्राप्तवान्देव - मुनीन्द्र - गुह्यम् ।
काचं विचिन्वन्नपि दिव्य - रत्नं स्वामिन्कृतार्थोऽस्मि वरं न याचे ॥42॥
 
अनुवाद
“[जब न्रुव महाराज को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वर दे रहे थे, तब उन्होंने कहा था: ] , ‘हे प्रभु, चूँकि मैं ऐश्वर्ययुक्त भौतिक पद की खोज में था, इसलिए मैं कठिन तपस्या कर रहा था। अब तो मैंने आपको पा लिया है, जिन्हें बड़े - बड़े देवता, मुनि तथा राजा भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं। मैं तो एक काँच का टुकड़ा ढूँढ रहा था, किन्तु इसके बदले मुझे बहुमूल्य रत्न मिल गया है। अतएव मैं इतना सन्तुष्ट हूँ कि अब मैं आपसे कोई वर नहीं चाहता।”
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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