श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 22: भक्ति की विधि  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  2.22.19 
নৈষ্কর্ম্যম্ অপ্য্ অচ্যুত-ভাব-বর্জিতṁ
ন শোভতে জ্ঞানম্ অলṁ নিরঞ্জনম্
কুতঃ পুনঃ শশ্বদ্ অভদ্রম্ ঈশ্বরে
ন চার্পিতṁ কর্ম যদ্ অপ্য্ অকারণম্
नैष्कर्म्यमप्यच्युत - भाव - वर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥19॥
 
अनुवाद
“जब शुद्ध ज्ञान सम्पूर्ण भौतिक आकर्षण से परे होता है, किन्तु सर्वोच्च व्यक्ति भगवान (कृष्ण) को समर्पित नहीं होता, तो यह भौतिक मल से रहित होते हुए भी अधिक सुन्दर नहीं दिखाई देता। तो फिर सकाम कर्मों का क्या लाभ, जो प्रारम्भ से ही कष्टप्रद और स्वभाव से क्षणिक हैं, यदि उनका उपयोग भगवान की भक्तिमय सेवा के लिए नहीं किया जाता? भला वे किस तरह अत्यन्त आकर्षक हो सकते हैं?”
 
 ✨ ai-generated
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2025 vedamrit. All Rights Reserved.