"हे प्रभु, कामवासनाओं के अवांछित आदेशों का कोई अंत नहीं है। मैंने सारी सेवा की, फिर भी उन्होंने मुझ पर दया नहीं दिखाई। न मुझे शर्म आई, न ही कभी इन्हें छोड़ने की इच्छा हुई। किंतु अब मेरी बुद्धि जाग गई है, अतः इन्हें छोड़ रहा हूँ। अब मैं इन अवांछित इच्छाओं के आदेश नहीं मानूँगा और आपके चरणों में शरण ले आया हूँ, कृपया अपनी सेवा में लगाकर रक्षा करें।" |