भगवान के प्रति के प्रेम की सहज इच्छा के अनुसार जब भक्त उन्हें पूर्ण रूप से मानता है, तब उसका यह चिन्तन पूर्ण रूप से भगवान के विचारों में लिप्त हो जाता है। यह चिन्तन दिव्य अनुराग कहलाता है, और इसी चिन्तन के अनुसार भक्तों द्वारा की गई भक्ति रागात्मिका भक्ति अर्थात् स्वयंस्फूर्त भक्तिमयी सेवा कहलाती है। |