श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 22: भक्ति की विधि  »  श्लोक 150
 
 
श्लोक  2.22.150 
ইষ্টে স্বারসিকী রাগঃ
পরমাবিষ্টতা ভবেত্
তন্-মযী যা ভবেদ্ ভক্তিঃ
সাত্র রাগাত্মিকোদিতা
इष्टे स्वारसिकी रागः परमाविष्टता भवेत् ।
तन्मयी या भवेद्भक्तिः सात्र रागात्मिकोदिता ॥150॥
 
अनुवाद
भगवान के प्रति के प्रेम की सहज इच्छा के अनुसार जब भक्त उन्हें पूर्ण रूप से मानता है, तब उसका यह चिन्तन पूर्ण रूप से भगवान के विचारों में लिप्त हो जाता है। यह चिन्तन दिव्य अनुराग कहलाता है, और इसी चिन्तन के अनुसार भक्तों द्वारा की गई भक्ति रागात्मिका भक्ति अर्थात् स्वयंस्फूर्त भक्तिमयी सेवा कहलाती है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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