श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 22: भक्ति की विधि  »  श्लोक 141
 
 
श्लोक  2.22.141 
দেবর্ষি-ভূতাপ্ত-নৃণাṁ পিতৄণাṁ
ন কিঙ্করো নাযম্ ঋণী চ রাজন্
সর্বাত্মনা যঃ শরণṁ শরণ্যṁ
গতো মুকুন্দṁ পরিহৃত্য কর্তম্
देवर्षि - भूताप्त - नृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥141॥
 
अनुवाद
“जो व्यक्ति सारे भौतिक कर्तव्यों का त्याग करके, सबको शरण देने वाले मुकुन्द के चरणकमलों में शरण ले लेता है, वह देवताओं, ऋषियों, साधारण जीवों, रिश्तेदारों, दोस्तों, मानवता या अपने दिवंगत पूर्वजों का भी ऋणी नहीं रह जाता।”
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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