“महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को भगवान कृष्ण के चरणों में लगाए रखते थे, अपने बोल उनके दिव्य स्वरूप और अध्यात्मिक संसार के वर्णन में, अपने हाथों से प्रभु के मंदिर की सफाई और सेवा में, अपने कानों से उनके पवित्र गुणों और कथाओं को सुनते, अपनी आंखों से मंदिर में स्थित भगवान कृष्ण की मूर्ति के दर्शन करते, अपने शरीर से वैष्णवों को गले लगाते और उनके चरण छूते, अपनी नाक से कृष्ण के चरणों में अर्पित तुलसी की सुगंध लेते, अपनी जीभ से उन्हें अर्पित भोजन का आनंद लेते, अपने पैरों से वृंदावन, मथुरा जैसी पवित्र तीर्थस्थलों और प्रभु के मंदिरों की यात्रा पर जाते, अपने सिर से प्रभु के चरणों को छूते और उन्हें प्रणाम करते और अपनी इच्छाओं द्वारा प्रभु की विधिवत सेवा करते थे। इस तरह महाराज अम्बरीष ने अपनी सभी इंद्रियों को भगवान की दिव्य और प्रेमपूर्ण सेवा में लगा दिया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपने भीतर प्रभु की सेवा करने की निष्क्रिय प्रवृत्ति को जाग्रत कर लिया।” |