श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 22: भक्ति की विधि  »  श्लोक 136
 
 
श्लोक  2.22.136 
শ্রী-বিষ্ণোঃ শ্রবণে পরীক্ষিদ্ অভবদ্ বৈযাসকিঃ কীর্তনে
প্রহ্লাদঃ স্মরণে তদ্-অঙ্ঘ্রি-ভজনে লক্ষ্মীঃ পৃথুঃ পূজনে
অক্রূরস্ ত্ব্ অভিবন্দনে কপি-পতির্ দাস্যে ’থ সখ্যে ’র্জুনঃ
সর্ব-স্বাত্ম-নিবেদনে বলির্ অভূত্ কৃষ্ণাপ্তির্ এষাṁ পরা
श्री - विष्णोः श्रवणे परीक्षि दभवद्वैयासकिः कीर्तने प्रह्लादः स्मरणे तदन्रि - भजने लक्ष्मीः पृथुः पूजने ।
अकूरस्त्वभिवन्दने कपि - पतिर्दास्येऽथ सख्येऽर्जुनः सर्व - स्वात्म - निवेदने बलिरभूत्कृष्णाप्तिरेषां परा ॥136॥
 
अनुवाद
महाराज परीक्षित ने श्री विष्णु के बारे में सुनकर ही भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन प्राप्त किए और चरणकमल की शरण प्राप्त की। यह उनकी परम सिद्धि थी। शुकदेव गोस्वामी ने केवल श्रीमद्भागवत का पाठ करके पूर्णता प्राप्त की। प्रह्लाद महाराज ने भगवान् का स्मरण करके पूर्णता प्राप्त की। लक्ष्मी ने महाविष्णु के चरणों की सेवा करके पूर्णता प्राप्त की। महाराज पृथु ने अर्चाविग्रह की पूजा करके एवं अक्रूर ने भगवान् की स्तुति करके पूर्णता प्राप्त की। वज्रांगजी (हनुमान) ने भगवान् रामचन्द्र की सेवा करके तथा अर्जुन ने कृष्ण का मित्र बनकर पूर्णता प्राप्त की। बलि महाराज ने कृष्ण के चरणकमलों पर अपना समर्पण करके पूर्णता प्राप्त की।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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