श्री चैतन्य चरितामृत » लीला 2: मध्य लीला » अध्याय 22: भक्ति की विधि » श्लोक 116 |
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| | श्लोक 2.22.116  | কৃষ্ণ-প্রীত্যে ভোগ-ত্যাগ, কৃষ্ণ-তীর্থে বাস
যাবন্-নির্বাহ-প্রতিগ্রহ, একাদশ্য্-উপবাস | कृष्ण - प्रीत्ये भोग - त्याग, कृष्ण - तीर्थे वास ।
यावन्निर्वाह - प्रतिग्रह, एकादश्युपवास ॥116॥ | | अनुवाद | "अगले चरण इस प्रकार हैं - (6) कृष्ण की संतुष्टि के लिए सब कुछ त्यागने के लिए तैयार रहना चाहिए, और कृष्ण की संतुष्टि के लिए ही हर चीज़ को स्वीकार करना चाहिए। (7) जहाँ कृष्ण हैं - जैसे वृंदावन, मथुरा या कृष्ण मंदिर में - वहीं रहना चाहिए। (8) जीविका - निर्वाह के लिए आवश्यक हो उतना ही धन कमाना चाहिए। (9) एकादशी के दिन उपवास रखना चाहिए।" | | |
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