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श्लोक 2.22.107  |
নিত্য-সিদ্ধ কৃষ্ণ-প্রেম ‘সাধ্য’ কভু নয
শ্রবণাদি-শুদ্ধ-চিত্তে করযে উদয |
नित्य - सिद्ध कृष्ण - प्रेम ‘साध्य’ कभु नय ।
श्रवणादि - शुद्ध - चित्ते करये उदय ॥107॥ |
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अनुवाद |
“कृष्ण के लिए शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में हमेशा से ही बसा हुआ है। यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसे किसी और स्रोत से प्राप्त किया जा सके। जब श्रवण और कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तो यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग जाता है।” |
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