श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 20: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा सनातन गोस्वामी को परम सत्य के विज्ञान की शिक्षा  »  श्लोक 316
 
 
श्लोक  2.20.316 
দীপার্চির্ এব হি দশান্তরম্ অভ্যুপেত্য
দীপাযতে বিবৃত-হেতু-সমান-ধর্মা
যস্ তাদৃগ্ এব হি চ বিষ্ণুতযা বিভাতি
গোবিন্দম্ আদি-পুরুষṁ তম্ অহṁ ভজামি
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य दीपायते विवृत - हेतु - समान - धर्मा ।
यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति गोविन्दमादि - पुरुषं तमहं भजामि ॥316॥
 
अनुवाद
“जब एक दीपक की ज्योति का विस्तार कर दूसरा दीपक जलाया जाता है और उसे अलग स्थान पर रखा जाता है, तब वह स्वतंत्र रूप से जलता है और उसका प्रकाश मूल दीपक जितना ही तेज होता है। इसी प्रकार परम पुरुषोत्तम भगवान गोविन्द अपने विष्णु रूपों में स्वयं का विस्तार करते हैं, जो समान रूप से प्रकाशमान, शक्तिशाली और ऐश्वर्यशाली होते हैं। मैं उन परम पुरुषोत्तम भगवान गोविन्द की पूजा करता हूँ।’
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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