श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 20: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा सनातन गोस्वामी को परम सत्य के विज्ञान की शिक्षा  »  श्लोक 125
 
 
श्लोक  2.20.125 
অভিধেয-নাম ‘ভক্তি’, ‘প্রেম’ — প্রযোজন
পুরুষার্থ-শিরোমণি প্রেম মহা-ধন
अभिधे य - नाम’ भक्ति’, ‘प्रेम’ - प्रयोजन ।
पुरुषार्थ - शिरोमणि प्रेम महा - धन ॥125॥
 
अनुवाद
"जीवन के परम लक्ष्य, ईश्वर के प्रति प्रेम, को विकसित करने की क्षमता के कारण, भक्ति या भगवान की सेवा को अभिधेय कहा जाता है। यह लक्ष्य जीव के लिए सर्वोच्च हित और महानतम धन है। इस तरह, भगवान के प्रति दिव्य प्रेम और सेवा प्राप्त होती है।"
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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