श्री चैतन्य चरितामृत  »  लीला 2: मध्य लीला  »  अध्याय 18: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा वृन्दावन में भ्रमण  »  श्लोक 65
 
 
श्लोक  2.18.65 
যত্ তে সুজাত-চরণাম্বুরুহṁ স্তনেষু
ভীতাঃ শনৈঃ প্রিয দধীমহি কর্কশেষু
তেনাটবীম্ অটসি তদ্ ব্যথতে ন কিṁ স্বিত্
কূর্পাদিভির্ ভ্রমতি ধীর্ ভবদ্-আযুষাṁ নঃ
यत्ते सुजात - चरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किं स्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥65॥
 
अनुवाद
“‘हे प्रियतम! आपके चरणकमल अति कोमल हैं, इसलिए हम उन्हें धीमे-धीमे अपने स्तनों पर रखती हैं, इस डर से कि कहीं आपके पैरों को ठेस न पहुँच जाए। हमारा जीवन केवल आप पर टिका है। इसलिए, हमारे मन में हमेशा यह चिंता बनी रहती है कि जब आप जंगल के रास्ते पर घूमते हैं तब कहीं कंकड़-पत्थरों से आपके पैरों को चोट न लग जाए।’”
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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