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अध्याय 18: श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा वृन्दावन में भ्रमण
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श्लोक 223
श्लोक
2.18.223
বৃন্দাবন-গমন, প্রভু-চরিত্র অনন্ত
‘সহস্র-বদন’ যাঙ্র নাহি পা’ন অন্ত
वृन्दावन - गमन, प्रभु - चरित्र अनन्त ।
‘सहस्र - वदन’ याँर नाहि पा’न अन्त ॥223॥
अनुवाद
श्री चैतन्य महाप्रभु का वृंदावन में आगमन और उनकी दिव्य लीलाएं अनगिनत हैं। भगवान शेष, जिनके सहस्र फन हैं, भी प्रभु के कार्यों और लीलाओं की पराकाष्ठा तक नहीं पहुंच सकते।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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